कितने दिन बीतें
खाली रतियाँ
याद आती है
तेरी बतिया ..
जिसके आने से
खिल उठा था गुल मेरा
बोलती है वीरान पड़ी
वो गलियां ...
किताबों में संभाले हुए
रखा था जिन्हें
बेजान सी महकती है
वो कालिया ....
Sunday, October 3, 2010
Monday, July 26, 2010
geet
vyastta ko bhool
ab to
deep man ke
tum jalao
ghar-angan
prakaashmay ho
geet aisa
gungunao....
ab to
deep man ke
tum jalao
ghar-angan
prakaashmay ho
geet aisa
gungunao....
ekaagra
khamoshi ne kaha-
chup!!!
ab kuch na bolna
par sannate mei bhi
awaazon ka kolahal
vo tanha hokar bhi
ekaagra nahi ....
chup!!!
ab kuch na bolna
par sannate mei bhi
awaazon ka kolahal
vo tanha hokar bhi
ekaagra nahi ....
dil
baat bebaat
jo jhagadta hai
uske khaatir hi
dil tadapta hai ...
khuda
kaun kiske liye kuchh karta hai
jo bhi karta hai khuda karta hai ...
jo bhi karta hai khuda karta hai ...
vichitra praani
मैं ऐसी वैसी नहीं हूँ .कहीं आप यह न सोच बैठना की मैं अपाहिज सी , अपंग सी या मंदबुद्धि सी हूँ. न ही मुझे तीन हाथ या तीन पैर है .यहाँ तक की अंगूठे और अंगुलिया भी एकदम बराबर . वैसी ही हूँ दिखने में जैसे की सामान्य जन होते है . बस आम लोगों की तरह ठहाके लगाकर नहीं हंसती .न ही आम लोगों की तरह बातें ही बना सकती हूँ .दुःख होता है की मैं ऐसी क्यों हूँ .शुक्र गुजार हूँ की थोड़ी सी प्रसिद्धि भी मिली है मुझे .पर मैं औरों की तरह नहीं हूँ . नियति ने मुझे कुछ और ही बना दिया . लोग कहते है मैं कलाकार हूँ , जन -साधारण नहीं हूँ. येही सबसे बड़ी चोट हो गयी की मैं साधारण नहीं हो सकी . कलाकार हो गयी जो रोने के बहाने ढूढ़ लेता है .मन बहुत निर्मल जो है . किसी को रोता नहीं देख पाती . इसलिए नहीं की अच्छा नहीं लगता . इसलिए की खुद रो पड़ती हूँ . और तब बड़ा अजीब लगता है जब कोई अपनी बताते बताते मेरे आंसू पोंछने लगता है वो भी खुद का सारा दुःख-दर्द भूलकर मैं ऐसी ही हूँ. हूँ न मैं विचित्र प्राणी.
Thursday, July 1, 2010
triveni
shunya hi hai aur toh kuchh bhi nahi dikhta
ek vikat maud hai rasta bahut kaatil
darr bhi hai, jaana bhi hai , paani bhi hai manzil
ek vikat maud hai rasta bahut kaatil
darr bhi hai, jaana bhi hai , paani bhi hai manzil
Monday, June 28, 2010
कुछ अनाम रिश्ते ...
रिश्तों की गिरफ्त में
कैद है हर मनुष्य ...
बंधता है जीवन भर के लिए
बस एक ही बार
कभी साथ नहीं छूटता ...
चाहे मन बैरी हो जाए
चाहे अलगाव हो जाए
फिर भी अंतस में कहीं
घर बनाये रहते है
ये जुड़े -अन्जुदे रिश्ते ....
मीठे भी कडवे भी
अधूरे पड़े कुछ रिश्ते
गलियारे ढूढ़ते है
कही कोई निशाँ हो
पहचान का कही...
पर फिर भी ताउम्र
अपना अस्तित्व
तलाशते रहते है
कुछ जीते है
बिना अस्तित्व के
कुछ अनाम रिश्ते ...
21st april, 2009
कैद है हर मनुष्य ...
बंधता है जीवन भर के लिए
बस एक ही बार
कभी साथ नहीं छूटता ...
चाहे मन बैरी हो जाए
चाहे अलगाव हो जाए
फिर भी अंतस में कहीं
घर बनाये रहते है
ये जुड़े -अन्जुदे रिश्ते ....
मीठे भी कडवे भी
अधूरे पड़े कुछ रिश्ते
गलियारे ढूढ़ते है
कही कोई निशाँ हो
पहचान का कही...
पर फिर भी ताउम्र
अपना अस्तित्व
तलाशते रहते है
कुछ जीते है
बिना अस्तित्व के
कुछ अनाम रिश्ते ...
21st april, 2009
chaahat
चाहते सब खो गयी है
ज़िन्दगी गुम हो गयी है ..
भर के जी देखू उसे
साज़ छेड़ने का मन,
चाँद को पाने की ख्वाहिश
भूल मुझसे हो गयी है ...
इस धरा का आसमां से
कब हुआ मिलना हकीकत
क्षितिज तो एक कल्पना है
काव्य - मन उपजी हुई है ...
बन नहीं पाए विहाग जो
पंख फैलाकर उड़े वो ,
भावनाएं उठ के फिर से
खाख ही सब हो रही है ...
मैं तो थी नदिया की भाँती
तुम अटल नग़ की तरह ,
चुप खड़े थे , सोचते थे
प्रीत पगली हो गयी है ...
............................
कण - कण मैं उसका अंश है
एक आत्मा ,एक ज्योति है
यही विधि विधान है
परमात्मा में खो रही है .......
फिर कहो कैसे वो ख्वाहिश
चाँद मेरा क्या हुआ
सब मिले जाकर उसी में
चाहते सब मिल रही है .....
22 jan,2008
क्षितिज=horizon,
विहग=पंछी ,
नग़ =mountain,
ज़िन्दगी गुम हो गयी है ..
भर के जी देखू उसे
साज़ छेड़ने का मन,
चाँद को पाने की ख्वाहिश
भूल मुझसे हो गयी है ...
इस धरा का आसमां से
कब हुआ मिलना हकीकत
क्षितिज तो एक कल्पना है
काव्य - मन उपजी हुई है ...
बन नहीं पाए विहाग जो
पंख फैलाकर उड़े वो ,
भावनाएं उठ के फिर से
खाख ही सब हो रही है ...
मैं तो थी नदिया की भाँती
तुम अटल नग़ की तरह ,
चुप खड़े थे , सोचते थे
प्रीत पगली हो गयी है ...
............................
कण - कण मैं उसका अंश है
एक आत्मा ,एक ज्योति है
यही विधि विधान है
परमात्मा में खो रही है .......
फिर कहो कैसे वो ख्वाहिश
चाँद मेरा क्या हुआ
सब मिले जाकर उसी में
चाहते सब मिल रही है .....
22 jan,2008
क्षितिज=horizon,
विहग=पंछी ,
नग़ =mountain,
Saturday, June 26, 2010
कैसे ये हमसफ़र
दो अजनबी
आ टकराए
एक मोड़ पर
साथ चलने लागे
राह एक ही
विचारों में भेद
मकसद भी एक
गंतव्य विभेद होने लगे..
मन मत्व्कांशी
डर पिछड़ जाने का
होड़ सब कुछ पाने की
एक दुसरे को छलने लगे ....
त्याग तो नहीं पर ,
'मैं ' ज़रूर था
शोहरत , नाम और पैसा ;
ज़िन्दगी के माने बदलने लगे ....
फूलों की मुस्कान ,
पंछियों की चुहुक
बढ़ते रहने की हूक़,
जिम्मेदारियों से भागने लगे....
कैसा नीरस सफ़र
कैसे ये हमसफ़र
कुम्हलाये बोझिल चेहरे
प्यार और मिठास भी खोने लगे .....
आ टकराए
एक मोड़ पर
साथ चलने लागे
राह एक ही
विचारों में भेद
मकसद भी एक
गंतव्य विभेद होने लगे..
मन मत्व्कांशी
डर पिछड़ जाने का
होड़ सब कुछ पाने की
एक दुसरे को छलने लगे ....
त्याग तो नहीं पर ,
'मैं ' ज़रूर था
शोहरत , नाम और पैसा ;
ज़िन्दगी के माने बदलने लगे ....
फूलों की मुस्कान ,
पंछियों की चुहुक
बढ़ते रहने की हूक़,
जिम्मेदारियों से भागने लगे....
कैसा नीरस सफ़र
कैसे ये हमसफ़र
कुम्हलाये बोझिल चेहरे
प्यार और मिठास भी खोने लगे .....
झींगुर
रात अचानक
कोई तीखी सी आवाज़
मेरे कानों को बेध गयी ...
आँखें खुली
कानों से सुनने का प्रयास ,
वही सुर
वही आवाज़,
झींगुर है ...
जो अक्सर
रातों में जागा करता है ,
इंसानों के सो जाने के बाद
वो, प्रेमगीत गाता है ....
यहाँ तो मनुष्य
प्रेम की भाषा ही
भूल गया है
तभी तो कानों में
चुभता है
उसका गया हुआ
प्रेमगीत ......
कोई तीखी सी आवाज़
मेरे कानों को बेध गयी ...
आँखें खुली
कानों से सुनने का प्रयास ,
वही सुर
वही आवाज़,
झींगुर है ...
जो अक्सर
रातों में जागा करता है ,
इंसानों के सो जाने के बाद
वो, प्रेमगीत गाता है ....
यहाँ तो मनुष्य
प्रेम की भाषा ही
भूल गया है
तभी तो कानों में
चुभता है
उसका गया हुआ
प्रेमगीत ......
Friday, June 25, 2010
sher
रिश्तों की दलदल मैं फंसकर
कितने हम बदनाम हुए
कितने ज़ख्म दिए लोगों ने
कितने कितने घाव दिए .....
कितने हम बदनाम हुए
कितने ज़ख्म दिए लोगों ने
कितने कितने घाव दिए .....
ek khayaal
बिन छुए तेरे
तेज़ हुई धड़कन
रग -रग में मेरे
दौड़ उठी सिहरन ......
कैसे मेरे मन में
पल रहा था एक ख्वाब
जैसे देता रात को
चांदनी मेहराब .......
आया था एक झोंखा
सब कुछ वो ले गया
होंठों पे बस मेरे
नाम तेरा रह गया ....
घुमु बन के बावरी
याद तेरी आये
तुझसे मिलु कब मैं
अब न raha जाए ........
जून , 2002
तेज़ हुई धड़कन
रग -रग में मेरे
दौड़ उठी सिहरन ......
कैसे मेरे मन में
पल रहा था एक ख्वाब
जैसे देता रात को
चांदनी मेहराब .......
आया था एक झोंखा
सब कुछ वो ले गया
होंठों पे बस मेरे
नाम तेरा रह गया ....
घुमु बन के बावरी
याद तेरी आये
तुझसे मिलु कब मैं
अब न raha जाए ........
जून , 2002
तुम बिन
आँख मैं आंसुओ के मोती पिरोकर
करती दुआ मैं सर को निवानकर
छूटे न तेरे आँचल की छांया
मेरी ज़रुरत है तेरा ही साया
लगता है तुझ बिन अधूरी सी हूँ मैं
ममता के शब्दों मैं डूबी सी हूँ मैं
तेरी ही सूरत को देखा करून मैं
हर वक्त तुझको ही पूजा करू मैं
मेरी तो दुनिया तुझी से सजी है
तुझ बिन ये दुनिया बेनूर सी है
क़दमों मैं तेरे सारा जहाँ है
तू ही नहीं तो वो जन्नत कहाँ है
तुझसे तो मेरी दुनिया जुडी है
तू ही नहीं तो ये क्या ज़िन्दगी है
तुझसे ख़ुशी है तू ही सहारा
तू ही नहीं तो क्या है हमारा
तेरी ज़रुरत है जीवन मैं हरपल
तुझको मैं मांगू इश्वर से प्रतिपल
अमावस की रातें है गुम है उजास
माँ तुम बिन घर आज लगता है उदास ................
31st march,2000
करती दुआ मैं सर को निवानकर
छूटे न तेरे आँचल की छांया
मेरी ज़रुरत है तेरा ही साया
लगता है तुझ बिन अधूरी सी हूँ मैं
ममता के शब्दों मैं डूबी सी हूँ मैं
तेरी ही सूरत को देखा करून मैं
हर वक्त तुझको ही पूजा करू मैं
मेरी तो दुनिया तुझी से सजी है
तुझ बिन ये दुनिया बेनूर सी है
क़दमों मैं तेरे सारा जहाँ है
तू ही नहीं तो वो जन्नत कहाँ है
तुझसे तो मेरी दुनिया जुडी है
तू ही नहीं तो ये क्या ज़िन्दगी है
तुझसे ख़ुशी है तू ही सहारा
तू ही नहीं तो क्या है हमारा
तेरी ज़रुरत है जीवन मैं हरपल
तुझको मैं मांगू इश्वर से प्रतिपल
अमावस की रातें है गुम है उजास
माँ तुम बिन घर आज लगता है उदास ................
31st march,2000
ek baat
भला यह भी हुई क्या बात
जो दीखता दुखी इंसान
चाहे आज तो मालिक ही
आ जाए तो मैं कह दू .........
की मन पर बोझ लगता है
उफनती आँख से गंगा
की थोडा आज मैं रो लू ..................
मैं अधना सा मलाज़िम
आज दिल की बात कह जाऊ
तेरी नज़रों मैं मैं भी
एक बड़ा गुस्ताख बन जाऊ
की दुनिया है बड़ी नीरस
की एक -दो दिन में ही में
इस जहाँ से आज विदा ले लू...................
यह कैसी प्यास है की
प्यास ही बुझती नहीं मेरी
की में तो तृप्त हो जाऊ
सुखी मिल जाए गर कोई
तो चल रच फिर से एक दुनिया
रहे एक आस मन में फिर
की थोडा और में जी लू
की थोडा और में जी लू............................
MA Pre. 2002
जो दीखता दुखी इंसान
चाहे आज तो मालिक ही
आ जाए तो मैं कह दू .........
की मन पर बोझ लगता है
उफनती आँख से गंगा
की थोडा आज मैं रो लू ..................
मैं अधना सा मलाज़िम
आज दिल की बात कह जाऊ
तेरी नज़रों मैं मैं भी
एक बड़ा गुस्ताख बन जाऊ
की दुनिया है बड़ी नीरस
की एक -दो दिन में ही में
इस जहाँ से आज विदा ले लू...................
यह कैसी प्यास है की
प्यास ही बुझती नहीं मेरी
की में तो तृप्त हो जाऊ
सुखी मिल जाए गर कोई
तो चल रच फिर से एक दुनिया
रहे एक आस मन में फिर
की थोडा और में जी लू
की थोडा और में जी लू............................
MA Pre. 2002
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- अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....