Sunday, October 11, 2009

दीपावली

मोम मैं छुपी हुई बाती
जलाती है खुद को
धीमे -धीमे से
उनकी पंक्तियाँ
सुसज्जित करती है
हमारे घर -आँगन को.
कितनी सुंदर लगती है ...
फुल्झादियों की रौशनी
और पटाखों की
ज़ोरदार, धमाकेदार
आवाज़ के साथ
जगमगा उठता है
आसमान ...
जैसे पल-पल मैं
अपने आभूषण
बदलता हो ..
उनकी दमक और खनक
चक्शुप्रिया और कर्णप्रिय सी
लगती हो ..
उतसाह, उमंग और
खिलखिलाहट की लड़ियाँ
जैसे एक धागे मैं
पिरो दी गयी हो
और घर आँगन मैं
रौशनी करने के लिए
उसके बारूद में ज़रा सी
चिंगारी छोड़ दी गयी हो ....
अहो! हर्षोल्लास से सराबोर
हर गली , हर कौना...
सब तरफ ख़ुशी ,
हर तरफ धुआं ;
और धुएं में गुम होती
हमारी दीपावली ...
धमाकों से डरती है
दीप ज्योति ,
शायद इसीलिए
बुझ जाती है
बस,
बची रहती है
प्रतिस्पर्धा ,
आडम्बर
और कुछ देर में
धूमिल हो जानेवाली
मुस्कान...
इन्ही के बीच
संवेदनशील
बेचारा मन
ढूढता है
चिर-परिचित
त्यौहार में,
दीप को,
ज्योति को
दीपावली ......

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About Me

अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....