जिसकी हर आवाज़ पर
रूह काँप उठती थी
रसोई में काम करते वक्त
करछी छूट जाती थी
थोडा-थोडा सा मन
सहम जाता था
एक भय सदा ही
छाया रहता था
जिसके शब्दभेदी बाण
अक्सर बेधते थे
बात-बेबात मुखसे
निकल जाते थे
साडी के आँचल को
खींचकर लपेटती थी खुदको
कहीं आहात न हो
मेरी देह सोचती थी
पर मन
लहूलुहान हो जाता था
बार-बार मरकर भी
जी जाता था
उसी से जिससे मेरी
कभी न बनी
उसी की कमी क्यों अब
खलने लगी .......
Wednesday, July 15, 2009
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About Me
- bhawana
- अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....
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