Monday, July 13, 2009

एक टूटन स्वप्न की है
एक टूटन अहम् की
सिर उठा कर चल न पाए
ऐसी है शर्मिंदगी .......
पेड की नव कोपले
हसती हुई सी लग रही
कर रही किलोल है
मखोल हुई ज़िन्दगी .........
उठ रही है टीस भी
तकलीफदेह आह भी
सांस रूककर आ रही है
हो रही है दिल्लगी ......
जी बहुत भारी सा है
मदमास्तियाँ खारिज हुई
देख ये भी रंग है
बदनीयती है संगिनी ..........

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About Me

अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....