सोचा की मैं दूर कहीं
जाकर बिल में छुप जाऊ
कभी नहीं दीखू तुझको
और कभी याद ना आऊ....
बहोत दिनों तक इस ख़याल को
मन में अपने पाला
बहोत दिनों तक बात नहीं की
चाहे मन तड़पाया....
चाह जगी मन में फिर इक दिन
देख तुझे मैं पाऊ
दूर से तुझको देख कहीं मैं
फिर से छुप-छुप जाऊ....
पर मेरा पागल सा मनवा
इसी आस में रहता
कैसे भी आकर के मुझको
तू अपनी सी कहता ....
लुका छुपी में खुद को अब मैं
थका थका सा जानूं
तू ही मेरी धड़कन, जीवन
तुझ बिन कैसे मानूं....
Friday, March 11, 2011
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- bhawana
- अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....
1 comment:
बहुत अच्छी नज़्म .
अक्सर ये ख्याल तो आता ही है .. वाह , क्या लिखा है आपने. बधाई
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
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