Saturday, March 12, 2011

मेरा मन

जाने कुछ कैसा होता है
हँसता है ना मन रोता है ..
चीज़ें रखकर भूल रहा मन
खुद को तब से ढूँढ रहा है ...
ना मालूम किधर छूटा था
तितली को मन पकड़ रहा था ...
वो तो गुम हो गयी आँख से
फिर भी मनवा ढूँढ रहा था ...
धरती और आकाश को नापा
फिर भी जाने कहा छुपा था..
मेरा मन था पगलाया सा
इसीलिए तो नहीं मिला था....

1 comment:

vedvyathit said...

aap ne meri rchna ko sneh v pyar diya hridy kee ghraiyon se aabhar vykt krta hoon kripya swkaren
aap ne mn jaise vishy pr likha sundr rchna ke liye bhut 2 bdhai
मन

यह मन ही तो था
जो बार २ आलोड़ित होता रहा
सागर की भांति
कभी घृणा ,कभी प्यार
कभी द्वेष ,कभी स्नेह
और कभी विष तो कभी अमृत
प्रकट होता रहा उस में
या छीजता रहा शैने: २ चाँद की नाईं
रजत उज्ज्वलता बिखेरता हुआ
और कभी २ कली सा
धूप में खिल कर
मुरझाता रहा
क्योंकि आखिर यह मन ही तो था
अस्थिर ,चंचल ,वेगवान और प्रयत्नशील भी
कुछ और होने के लिए
परन्तु होता कैसे
अपनी अस्थिरता और चंचलता के कारण
और बना रहा बस केवल मन ||
kripya is pr bhi drishti dalen pun aabhar
mail dr.vedvyathit@gmail.com
09868842688

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About Me

अपने विचारों मैं उलझी किन राहों मैं नहीं भटकी खुद की तलाश में वक्त को बिताती हूँ पर जवाब नहीं पाती हूँ .... लोगों से मिलती हूँ ताल भी मिलाती हूँ अजनबी होने से थोडा खौफ खाती हूँ पर खुद को बहुत दूर बहुत दूर पाती हूँ ....